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भाषाशिक्षण के सामान्य सिद्धांत

 

शिक्षण की सफलता के लिए छात्रों की रुचियों एवं योग्यताओं को ध्यान में रखकर योजना बनानी पड़ती है, किन्तु ऐसा करने में जिस विषय को पढ़ाना है, उसकी विशिष्टताओं को ध्यान में रखना पड़ता है। कुछ विषय में सूचनाओं एवं तथ्यों का विशेष महत्त्व होता है, परन्तु भाषा में ऐसा नहीं है। भाषा की शिक्षा देने में भाषा की प्रकृति को भी ध्यान में रखना चाहिए। नीचे कुछ ऐसे सामान्य सिद्धांतों की चर्चा की जा रही है, जिनमें से कुछ का प्रयोग तो सभी विषयों की शिक्षा में किया जा सकता है, किन्तु कुछ को केवल भाषाशिक्षा में ही व्यवहृत कर सकते हैं।

स्वाभाविकता का सिद्धांत भाषा अर्जित सम्पत्ति तो है, किन्तु इसको सीखने की शक्ति प्रकृतिप्रदत्त है। भाषा मनुष्य की स्वाभाविक शक्ति है। वह स्वभावत: बोलना सीखता है और सुनकर तथा बोलकर भाषा का विकास करता है। सुनने और समझने की कला अपने आप जाती है। यदि हमें बोलने की कला प्रकृति द्वारा न प्राप्त होती तो हम भाषा की अतुल सम्पत्ति से वंचित रह जाते। यह शक्ति केवल मातृभाषा सीखने तक ही सीमित नहीं होती, अन्य भाषाएँ भी सम्पर्क में आकर सीख लेता है। बालकों में स्वाभाविकता का सिद्धांत अधिक काम करता है। उनमें भाषा को स्वत: स्फूर्त शक्ति के माध्यम से सीखने की योग्यता अधिक होती है। प्रौढ़ व्यक्तियों में यह शक्ति कुछ कुण्ठित हो जाती है।

प्रयत्न का सिद्धांत भाषा एक जटिल एवं सूक्ष्म विषय है, अत: इसे केवल स्वाभाविक शक्ति द्वारा ही नहीं सीखा जा सकता। इसके अध्ययन में प्रयत्न की आवश्कता पड़ती है। भाषा के साहित्यिक रूपों का विधिवत् अध्ययन करना पड़ता है। आलंकारिक एवं कलात्मकभाषा प्रयत्न द्वारा सीखी जाती है। श्रुतलेख, वाक्यरचना, सस्वर पठन, अनुवाद जैसे कार्यों में प्रयत्न की आवश्यकता पड़ती है। भाषा की शुद्धता के लिए भी प्रयत्न करना पड़ता है।

लेखनकार्य से पूर्व मौखिक कार्य का सिद्धांतसर्वप्रथम बालक बोलना सीखता है। अत: भाषाशिक्षण में पहले मौखिक कार्य कराना चाहिए। मौखिक कार्य सिखाने के बाद लिखना सिखाना चाहिए। पढ़ना भी लिखने के पूर्व सरल होता है, अत: वर्णमाला लिखना सिखाने से पूर्व पढ़ाने का अभ्यास कराया जाए। मैडम मॉण्टेसरी ने इस सिद्धांत का विरोध किया है, किन्तु भाषा की प्रकृति को देखते हुए यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मौखिक कार्य पहले होना चाहिए।

बोलने और लिखने में सामंजस्य का सिद्धांत बोलने और लिखने को नितान्त पृथक् क्रियाएँ नहीं समझना चाहिए और ही इन्हें पृथक् क्रियाओं की भाँति सिखाना चाहिए। पृथक् रूप से लेने पर दोनो में सामंजस्य नहीं हो पाता और इसका कुपरिणाम वर्तनी की भूलों के रूप में हमें दिखाई पड़ता है। लिपि सम्बन्धी अज्ञान एवं उच्चारण सम्बन्धी दोषों का एक कारण इस सिद्धांत का प्रयोग न करना भी है। प्रारम्भिक कक्षाओं में सुलेख के अभ्यास द्वारा इस नियम को व्यवहृत कर सकते हैं।

स्वतंत्रता का सिद्धांत भाषा का अधिकार करने के लिए बालक को स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। स्वतंत्र वातावरण में वह सीखने को उत्सुक होता है। जिज्ञासा के अभाव में सीखना मन्द गति से होता है। जिज्ञासा की तीव्रता स्वतंत्र वातावरण में होती है। स्वतंत्र वातावरण में बालक खुलकर अपने मनोभावों को प्रकट करता है। जो बालक घुटनपूर्ण वातावरण में रहता है, वह आत्मप्रकाशन करने से डरता है। जब तक वार्तालाप, वादविवाद, चर्चा, पत्रव्यवहार आदि में बालक स्वतंत्रता की अनुभूति नहीं करेगा, तब तक उसे भाषा के प्रयोग का अवसर नहीं मिलेगा।

रुचि का सिद्धांत पाठ को नीरस एवं बोझिल बना देने से छात्र ऊब जाते हैं। अत: शिक्षक को इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि जिस बात में छात्रों की रुचि होती है, उसकी ओर वे आकृष्ट होते हैं और जिसकी ओर अरुचि होती है, उससे वे दूर भागते हैं। शिक्षण को रुचिकर बना देने से छात्रों में उत्साह बढ़ता है और वे भाषा को प्रसन्नचित होकर सीखते हैं। शिक्षक को विनोदप्रिय एवं शिष्ट हास्य का प्रयोगकर्ता होना चाहिए। रोचक व्याख्यान, कवि सम्मेलन, अन्त्याक्षरी समारोह, जयन्ती आदि के माध्यम से भाषाशिक्षण में रुचि उत्पन्न की जा सकती है।


वैयक्तिक भिन्नता का सिद्धांतशिक्षाशास्त्र में आज यह मान्य तथ्य बन गया है कि एक बालक अपनी योग्यता, रुचि, प्रवृत्ति, अभिवृत्ति, शारीरिक क्षमता, संवेगात्मकता आदि में दूसरे बालक से भिन्न होता है। कक्षाशिक्षण में प्राय: सभी बालकों को समान समझकर शिक्षण चलता है, किन्तु भाषा एक कौशल है और इस पर अधिकार व्यक्तिगत क्षमता के आधार पर सम्भव है। अत: इस सिद्धांत का पालन करते हुए प्रत्येक बालक की भाषायी त्रुटि का निदान करना चाहिए उनकी कमजोरयिों को दूर करने के लिए प्रयास करना चाहिए। छात्रों पर व्यक्तिगत ध्यान देना आवश्यक है।

बालकेन्द्रिता का सिद्धांत यह ध्यान रहे कि शिक्षा का केन्द्र बालक है अत: बालक को इस योग्य बनाना है कि वह भाषायी कौशलों पर अधिकार कर सके। कभीकभी हिन्दी या अन्य भाषा का अध्यापक कक्षा में पढ़ातेपढ़ाते स्वयं तो आनन्दविभोर हो जाता है, किन्तु छात्रों को आनन्दविभोर कर देने की उसे तनिक भी चिन्ता नहीं रहती। भाषा सिखाने में बालक के स्वभाव, उसके वातावरण एवं याेग्यता का ध्यान रखना चाहिए। शब्दभण्डार की वृद्धि करते समय पहले बालक का शरीर, घर, मुहल्ला, गाँव आदि से सम्बद्ध शब्द आने चाहिए।

प्रारम्भिक अवस्था का महत्त्वशैशव और बाल्यावस्था भाषा सीखने की दृष्टि से बड़ी महत्त्वपूर्ण है। ज्योंज्यों बालक बड़े होते है जाते हैं, उनकी भाषा सीखने की सहज शक्ति मन्द होती जाती है। प्रारम्भिक अवस्था में यह शक्ति बहुत सक्रिय रहती है। बाद में सोचसमझ कर सप्रयत्न भाषा सीखी जाती है, किन्तु प्रारम्भ में बालक के कण्ठ से भाषा स्वयं फूट पड़ती है।

नाड़ी विशेषज्ञ विल्डर पेनफील्ड के अनुसार दस वर्ष की अवस्था तक बच्चों में एक से अधिक भाषाओं को सीखने की क्षमता होती है। वे कई भाषाएँ सुगमता से सीख जाते हैं।

क्रियाशीलता का सिद्धांतकक्षा में यदि बालकों को निष्क्रिय बना दिया जाय तो वे भाषा सीखने को तत्पर नहीं होते। भाषा वे तभी सीख पाते हैं, जब वे सक्रिय हों। अध्यापक की ही सक्रियता से काम नहीं चलेगा, छात्रों को भी निष्क्रिय श्रोता बनने की अपेक्षा भाषा का सक्रिय प्रयोगकर्त्ता होना चाहिए। प्रश्नोत्तर के माध्यम से सक्रियता में वृद्धि की जा सकती है। वार्तालाप, संवाद, वादविवाद, प्रवचन, काव्यपाठ आदि में छात्र सक्रिय रहते हैं और इसलिए इनके माध्यम से भाषा सीखना सरल होता है।

चयन का सिद्धांत भाषाशिक्षा के अनेक उद्देश्य हैं। उद्देश्यों के आधार पर व्यवहार में परिवर्तन भी अनेक प्रकार के हैं। इनमें से सभी उद्देश्यों एवं व्यवहारपरिवर्तनों को एक साथ लेकर शिक्षा नहीं दी जा सकती। इनमें कौनसा उद्देश्य कब लिया जाये, किसे पहले लिया जाये और किसे बाद में, इन प्रश्नों पर अध्यापक को पढ़ाने से पूर्व विचार कर लेना चाहिए। इनमें क्रम बना लेना चाहिए। यह चुनाव बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि एक घण्टे में सभी उद्देश्यों को लेकर चलने में कोई उद्देश्य नहीं मिल पाता।

विभाजन का सिद्धांत उद्देश्य निश्चित करना ही पर्याप्त नही है। जब किसी उद्देश्य या व्यवहार परिवर्तन का चुनाव कर लिया गया तो यह भी आवश्यक है कि विषय सामग्री को उद्देश्य के आधार पर विभाजित कर लिया जाये। किस उद्देश्य के लिए कौनसी सामग्री उपयुक्त है, कौनसे पाठ्यबिन्दु हों, क्या क्रियाएँ हों तथा कितनी अन्वितियों में बाँटा जाये; इन प्रश्नों पर विचार कर लेना चाहिए और यथोचित पाठयोजना बना लेनी चाहिए।


अनुकरण का सिद्धांत भाषाशिक्षण में अनुकरण का विशेष महत्त्व है। शिशु अत्यधिक अनुकरणशील होता है। अनुकरण की प्रवृत्ति बाल्यावस्था में ही नहीं, किशोरावस्था में भी होती है। आगे चलकर यह प्रवृत्ति कम हो जाती है। प्रारम्भ में बालक अनुकरण के आधार पर ही भाषा सीखते हैं। वर्णों का उच्चारण अनुकरण पर निर्भर है। शब्दों का प्रयोग एवं वाक्ययोजना अनुकरण का ही परिणाम है। अत: छात्रों को अनुकरण के अवसर उपलब्ध होने चाहिए। एक बात और है कि छात्र अधिकतर शिक्षकों की भाषा का ही अनुकरण करते हैं, अत: शिक्षक को आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए और भाषा के प्रयोग में सदा सावधान रहना चाहिए।

अभ्यास का सिद्धांत रीतिकालीन कवि वृन्द का एक दोहा हैकरतकरत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान। रसरी आवत जात से सिल पर होत निशान।।थार्नडाइक ने अभ्यास के नियम को सीखने का एक नियम स्वीकार किया है। भाषा एक कौशल है और इसका विकास एक अभ्यास पर ही निर्भर है। अभ्यास का क्रम टूट जाने पर भाषा का अधिकार धीरेधीरे समाप्त हो जाता है। बहुत से हिन्दीभाषी लोग बँगला, उड़िया, तेलुगु, तमिल, जर्मन, रूसी जैसी भाषाएँ प्रयत्न से सीख लेते हैं, किन्तु अभ्यास करने से बाद में वे इन्हें लिखपढ़बोल नहीं सकते। भाषा सीखने की आदत डालना आवश्यक है। आदत अभ्यास का परिणाम है। इसीलिए भाषाशिक्षण में कण्ठस्थ करने का अपना महत्त्व है। भाषासामग्री को कण्ठस्थ कर लेने से झिझक, संकोच, अशुद्धि की आशंका आदि से छात्र बच जाते हैं। अत: यौगिक शब्दों, कहावतें, मुहावरे, कुछ संवाद, कुछ कविताएँ छात्रों को अवश्य कण्ठस्थ होनी चाहिए। अभ्यास के लिए महर्षि पतंजति ने रुचि, नैरंतर्य और वैराग्य तीन बातें आवश्यक बतायी हैं। रुचिपूर्वक अभ्यास करें, निरन्तर अभ्यास करें और अभ्यास में बाधक तत्त्वों के प्रति वैराग्य भाव रखें। इस रीति से किया गया अभ्यास सफलता के अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचा देता है। इसी प्रकार के अभ्यास से क्रिकेट, हॉकी या फुटबॉल का मामूलीसा खिलाड़ी विश्वप्रसिद्ध खिलाड़ी बन जाता है।

स्वयंसंशोधन का सिद्धांत भाषा सीखने में बालक स्वयं संशोधन करता चलता है। शिशु यदि रोटी कोलोतीकहता है और लोग चिढ़ाते हैं तो वह खुद रोटी कहना सीखता चलता है। अपनी ध्वनियों, शब्दों एवं वाक्यों की त्रुटियों को बालक स्वयं संशोधित कर लेता है। इस संशोधन की सहज प्रवृत्ति का बाद में भी लाभ उठाना चाहिए और यथासम्भव छात्र भाषा का स्वयं संशोधन करे। यदि स्वयंसंशोधन की प्रवृत्ति मन्द पड़ जाती है तो भाषा सीखने की शक्ति भी क्षीण हो जाती है।

बहुमुखी प्रयास का सिद्धांत भाषासिद्धांत के लिए अकेले यदि भाषा शिक्षक ही प्रयत्न करता है तो वह सफल नहीं हो पाता। एक घण्टे में वह बालकों के समक्ष भाषा का शुद्ध प्रयोग सिखाये और इतिहास, भूगोल, विज्ञान, अर्थशाध्E, नागरिकशाध्E आदि केशेष सात घण्टों में बालक भाषा का अशुद्ध प्रयोग सीखें, तो भाषा पर अधिकार सम्भव नहीं होगा। शुद्ध भाषा के प्रयोग का प्रयास बहुमुखी होना चाहिए। सभी विषयों के शिक्षण में इस पर बल होना चाहिए। पाठ्क्रमोत्तर कार्यों में भी भाषा का शुद्ध प्रयोग हो।